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Saturday 30 November 2013

भगोरिया भगोरिया पर विशेष भीलांचल संस्कृति को प्रस्तुत करने वाला पर्व है ‘‘भगोरिया’’ आदिवासी समुदाय अपनी मौज मस्ती और रंगीले स्वभा...

भगोरिया पर विशेष

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भगोरिया


भगोरिया पर विशेष

भीलांचल संस्कृति को प्रस्तुत करने वाला पर्व है ‘‘भगोरिया’’
आदिवासी समुदाय अपनी मौज मस्ती और रंगीले स्वभाव से ही समाज में अपनी पहचान बनाये हुए है । जो मौज मस्ती उनके स्वभाव में है वहीं उनके त्यौहारो में देखने को मिलती है । प्रणय को समारोह बनाना और समारोह में प्रणय का प्रसंग तलाषना भीलांचल की संस्कृति है । इसी संस्कृति को प्रस्तुत करने वाला पर्व है ‘‘भगोरिया’’ । प्रणय पर्व के रूप में अपनी पहचान रखने वाला यह पर्व हर उम्र के लिए अलग मायने रखता है । यही वजह है कि भगोरिया का इंतजार हर कोई अपने-अपने हिसाब से करता है । किसी के लिए भगोरिया मेला है, तो किसी के लिए जीवन साथी की तलाष, तो किसी के लिए मस्ती को महसूस करने का जरिया । वही कोई अपनी पुरानी रंजिष को अंजाम देने के लिए भगोरिया की बांट जोहता है ।
होली के एक सप्ताह पूर्व से शुरू होने वाले यह भगोरिया हाट भीलांचल के लिए नई उमंग, प्रणय-प्रसंग के साथ मेल मिलाप के समारोह की तरह होते हैं । नियमित रूप से लगने वाले हाट बाजारों को होली के आस पास भगोरिया हाट की शक्ल दी जाती है । फिर शुरू होता है इन हाट बाजारों में उमंग-तरंग एवं प्रेम इजहार का सिलसिला । बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को आन्नदित करने वाले इस भगोरिया हाट की सभी को प्रतिक्षा रहती है । बच्चें जहाॅ झूले, चकरी के लिए इसका इंतजार करते है वहीं युवा अपने जीवन साथी की तलाष के लिए । बुजुर्गों के लिए इस हाट मंे नषे का सुरूर और मांदल की थाप ही काफी है । भीलांचल में मनाए जाने वाले भगोरिया में वह सब होता है. जिसके लिये आदिवासी संस्कृति पहचानी जाती है । प्रणय निवेदन, नषे का सुरूर, मांदल की थाप पर नाचती टोलियाॅ, रंग-बिरंगे परिधान पहने युवक-युववियाॅ, झूले-चकरी में आनंद लेते ग्रामीण, तीर कमान एवं फालिया के साथ बांसूरी की सुर लहरिया गूंजाते छैल छबिले ।
भगोरिया हाट पुरानी प्रथाओं पर आधारित है तथा भीलों के देवता भगोर देव के नाम पर यह पर्व मनाया जाता है । कहा जाता हैं कि भगोर गोत्रिय भीलों द्वारा आरंभ किये जाने के कारण यह भगोरिया के रूप में चर्चा मे आया । एक आम मान्यता यह भी है कि भीलों द्वारा पूजे जाने वाले षिव-पार्वती का एक नाम भग एवं गोरी भी है । जिसके कारण ही इस पर्व को भगोरिया नाम मिला है । इन्ही के आधार पर यह आंकलन किया जाता है कि भगोरिया हाट का नामकरण पूर्व से प्रचलित इन्ही में से किसी मान्यताओं के आधार पर किया गया है। लेकिन इतिहास चाहे जो हो पर वर्तमान में भगोरिया पर्व आदिवासी परिवारों के उत्साह को मनाने का पर्व बन गया है । वैसे भी वर्तमान समाज में जिस तरह के प्रयोग हो रहे हैं आदिवासी परिवार उन प्रयोगों को पूर्व से ही करता रहा है । जिस तरह के स्वयंवर होने की कथाएॅ हिन्दू शास्त्रों में वर्णित है, वैसी ही पहल भगोरिया पर्व में देखने को मिलती है । भग एवं गोरी के प्रणय को उत्साह के साथ मनाने की मान्यता के चलते आदिवासी युवक-युवती भगोरिया हाट में अपने जीवन साथी की तलाष करते हैं । मुख्य रूप से नयी फसल आने पर उसकी खुषियों को नाच-गाकर मनाने की परम्परा भी इससे जुडी है । इन्ही खुषियों में जब दूसरी खुषियां मिलती है तो भगोरिया की रंगत आ जाती है । प्रणय निवेदन से हटकर इन हाट बाजारों में गीत संगीत के साथ मांदल, ढोल एवं बांसूरी की मधुर लहरियाॅ सुनने को मिलती है और ऐसे लोक गीत गूंजनें लगते हैं।

हमू काका बाबा न पोरिया,कोडल्यों खेला डुम ,
हमू भगोरिया हाट जावा रे,कोडल्यों खेला डुम ,

भगोरिया हाट के एक सप्ताह पूर्व जो हाट लगते हैं उन्हें तैहवारिया का नाम दिया जाता है। इन हाट बाजारों में आदिवासी परिवार आकर भगोरिया हाट के लिए सामग्री खरीदने का काम करते हैं । मूल रूप से सजने-सवरने एवं आंनद को महसूस करने के लिए मनाया जाने वाले भगोरिया हाट के लिए ज्यादातर वस्त्र एवं श्रंगार सामग्री खरीदी जाती है । उत्साह का यह आलम होता है कि नषे में पुरूषों के साथ महिलाए भी कन्धे से कन्धा मिलाकर मांदल की थाप पर थिरकती दिखती है । हाट के दौरान बडे बुर्जुग जहा आपस में गुलाल लगाकर गले मिलते है, वहीं युवा अपनी गुलाल का उपयोग जीवन साथी को चुनने में करते हैं । हाट के दिनों में नृतक दल के रूप में युवक एवं युवतियों की टोलियाॅ गेहर बनाकर आमने सामने होती है । अपनी प्रस्तुती को बेहतर एवं आकर्षक बनाने के प्रयास ही जीवन साथी का चयन आधार होते है । हाट में यदि किसी युवक को युवती पसंद आ जाये तो वह गाल पर गुलाल लगाकर प्रणय निवेदन करता है । इसके जवाब में अगर युवती भी गुलाल लगाती है तो माना जाता है कि वह भी जीवन साथी बनने की इच्छुक है । वहीं यदि युवती गुलाल पौंछ देती है तो यह निवेदन अस्वीकार माना जाता है और युवक अन्य युवती की तलाष मे निकल जाता है । वर्तमान में इस परंपरा मंें भी बदलाव देखने को मिल रहा है । अब गुलाल की जगह पान खाने एवं खिलाने का निवेदन और उसकी स्वीकृति भविष्य को तय करती है । एक अन्य बात जो इस परंपरा को रोचक बनाती है वह है युवक युवती की स्वीकृति के बाद दोनों का भाग जाना। इसके बाद दोनों के परिवारजन बैठकर आपस में समझौता करते हैं। इसके बाद वर पक्ष की तरफ से वघू पक्ष को दी जाने वाली राषि का निर्धारण होता है। इस राषि के चुकाये जाने के बाद ही भागे गये युवक-युवती वापिस घर को लौटते हैं। उसके बाद सामाजिक आयोजन कर इस प्रस्ताव को सामाजिक मान्यता प्रदान की जाती है। वर एवं वधू पक्ष के बीच समझौता कराने में मुख्य भूमिका भानगड़िये की होती है। ये वो व्यक्ति होता है जो दोनों पक्षों के बीच सुलह कराता है। यह सुलह इतनी आसान भी नहीं होती कि जितनी दिखती है। कई बार इन्हीं कारणों से परिवारों के बीच मतभेद एवं आपसी रंजिष भी बढ़ जाती है और उसका अंजाम हत्या एवं आगजनी तक पहुंच जाता है। भगोरिया हाट के दौरान एक ही गांव की युवतियां एवं युवक एक जैसे कपड़ों में हाट में पहुंचते हैं। कपड़ों की ये समानता फलियों के आधार पर होती है। झाबुआ जिले में जिस तरह के भौगोलिक स्थिति है वहां पर पहाड़ों की चोटियों पर परिवार बसते हैं। अलग-अलग समूह में बसे ये परिवार ही फलिये का आधार होते हैं।
भगोरिया हाट की परम्परा का सम्मान करते हुए अब जिला प्रषासन ने आपसी रंजिष को दूर करने के एवं युवक-युवती के भागने पर होने वाले टकराव को रोकने के लिए भगोरिया हाट में अपने विषेष काउन्टर स्थापित किये हैं । जहा पर जनप्रतिनिधि एवं जिला प्रषासन के अधिकारी ये कोषिष करते हैं कि पसंद आने पर युवक-युवती यहा अपना पंजीयन करायें तथा अपनी इस सहमति को प्रमाणिकता प्रदान करें। जिला प्रषासन ने यह भी पहल की है कि यहाॅं पर पंजीयन कराने वाले युवक-युवतियों को पाॅच हजार रू. की सहायता दी जाती है। इसके पीछे जिला प्रषासन की मंषा ये है कि भानगडिये एवं दापा के माध्यम से खर्च होने वाली राषि से आदिवासी परिवारों को कर्जे से बचाया जा सके क्योंकि जिस तरह दापा के माध्यम से लड़के का पिता लड़की के पिता को जो राषि चुकाता है उसका परिणाम लड़की को भुगतना पड़ता है। कर्जे में डूबा परिवार घर आते ही बहू को भी मजदूरी पर भेज देता है। झाबुआ जैसे अंचल में जहां आजीविका की संभावनायें कम हैं तथा किसानों की भूमि सिर्फ एक फसल देती है ऐसे में पलायन यहाॅं की आजीविका का एक मात्र आधार है। ज्यादातर आदिवासी परिवार पलायन के माध्यम से अपनी रोजी रोटी चलाते हैं लेकिन भगोरिया पर्व की शुरूआत के साथ ही पलायन पर गये आदिवासी परिवार वापिस लौटने लगते हैं। भगोरिया पर्व झाबुआ के अलावा धार, बड़वानी एवं खरगोन के आदिवासी अंचलों में मनाया जाता है।
कुल मिलाकर भीलांचल में भरने वाले भगोरिया हाट में आदिवासी संस्कृति की सम्पूर्ण झलक देखने को मिल जाती है। भगोरिया का संास्कृतिक पक्ष उल्लास, उमंग एवं मस्ती का है, यहाॅ पर हर कोई अपने-अपने हिसाब से इसे जीता है और इसके आने का इन्तजार करता है।
 
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