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Thursday 9 April 2020


Saturday 22 February 2014

मुगल और ब्रिटिश में प्रतापगढ़ के इतिहास युग प्रतापगढ़ के दौरान अप्रभावित एक बड़ी हद तक बनी   मुगल   युग.   उस समय प्रतापगढ़ के राज्य रुप...

मुगल और ब्रिटिश में प्रतापगढ़ के इतिहास युग
प्रतापगढ़ के दौरान अप्रभावित एक बड़ी हद तक बनी मुगल युग. उस समय प्रतापगढ़ के राज्य रुपये की फिरौती का भुगतान करने के लिए इस्तेमाल किया.दिल्ली के शासकों के लिए सालाना 15,000. Saalim सिंह तो मुगल बादशाह से लिखित अनुमति प्राप्त शाह आलम द्वितीय ने अपने राज्य के लिए एक स्थानीय मुद्रा शुरू करने के लिए और एक स्थानीय में बनाया गया था जो Saalimshahi-सिक्का (सिक्का), के रूप में यह नाम टकसाल - (Partabgarh-टकसाल). 1763 में, मल्हार राव होलकर (16 मार्च 1693 - 20 मई 1766), की दिशा में आगे बढ़ रहा है, जबकि उदयपुर , बाद में भी अरी सिंह मेवाड़ के शासक की सहायता के लिए अपने सैनिकों को भेज दिया जो Saalim सिंह से कुछ राशि extorted जब कुछ स्थानीय 'Sardaars' 1768 में उनके खिलाफ बगावत कर दी. Saamant सिंह (Saalim सिंह के बड़े बेटे) के शासन के दौरान, मराठों प्रतापगढ़ राज्य और Saamant सिंह कोई विकल्प नहीं था परेशान करने के लिए, लेकिन रुपये की राशि का भुगतान करने के लिए सहमत करने के लिए जारी रखा. 72,720 / - प्रतिवर्ष दूर मराठा-invadors रखने के लिए "Khiraj" के रूप में.
हालांकि, Holkers द्वारा नियमित रूप से जबरन वसूली से राज्य को बचाने के लिए, Saamant सिंह बजाय अंग्रेजों को "Khiraj" (खिराज) का एक ही राशि का भुगतान करने के लिए 1804 में अंग्रेजी सरकार के साथ एक समझौता किया. लेकिन के नए राजनीतिक नीतियों के कारण लॉर्ड कॉर्नवालिस , इस संधि ब्रिटिश शासकों के प्रत्यक्ष नियंत्रण में प्रतापगढ़ के राज्य पर लेने में जिसके परिणामस्वरूप, लंबे समय के लिए नहीं बनाए रख सकता है.
Saamant सिंह कम या ज्यादा संतोषजनक ढंग से प्रारंभिक चरण में राज्य प्रशासित जो, सिर्फ 1804 में अंग्रेजी संधि के बाद, उनके सबसे बड़े पुत्र दीप सिंह को प्रशासन के हवाले कर दिया, लेकिन उनके खिलाफ विद्रोह जल्द ही उनके सिर को ऊपर उठाने शुरू कर दिया. वह उसे और उसके 'नीतियों' के विरोधी थे, जो कुछ व्यक्तियों, assisinated गया. अपने काम से नाखुश, ब्रिटिश सरकार ने अपने जीवन के बाकी के लिए गांव Devalia में रहने के लिए हमेशा के लिए प्रतापगढ़ छोड़ने के लिए उस से पूछा, लेकिन दीप सिंह 'तनहाई' की तरह नहीं था. वह ब्रिटिश, एक अंग्रेजी के आदेश को धता बताते हुए प्रतापगढ़ को confinment से लौटे जब कुछ समय के बाद सेना, सेना की एक लड़ाई में उसे हरा दिया और में उसे कैद Achnera-(मुख्यालय Arnod), वह 1826 में अंतिम सांस ली जहां.
1827 और 1864 के बीच राजा गोपाल सिंह की अवधि उथलपुथल और प्रतापगढ़ में polititical अस्थिरता का एक युग था.
प्रारंभिक काल से प्रमुख क्षेत्र है, इस क्षेत्र में विशेष रूप से उत्तरी पश्चिमी भाग बहुत घने जंगलों, 1828 में एक अलग राज्य के वन विभाग, राज्य के असाधारण अमीर वन धन का प्रबंधन करने के लिए बनाया गया था.
1865 में उदय सिंह, कुछ सुधारों की स्थापना की दीवानी अदालतों की शुरुआत की जो राजा बन गया कुख्यात दौरान राहत कार्य शुरू कर दिया 1876-78 के भीषण अकाल , नागरिकों के लिए उचित मूल्य की दुकानों को खोला और भी कुछ नागरिक करों छूट दी गई है. उदय सिंह के कम या ज्यादा अंग्रेजों द्वारा बनाया गया की तर्ज पर वर्ष 1867 ई. में खुद के लिए प्रतापगढ़ में एक नया महल बनाया और वहीं रहने लगे (चित्र देखें).

प्रतापगढ़ में एक और पैलेस, राजस्थान, भारत: उदय सिंह (1864-1890) द्वारा निर्मित, फोटो: एच एस, 2011
इसके बाद वे नियमित रूप से प्रतापगढ़ के विकास में शामिल हो रही शुरू कर दिया. उदय सिंह ने पारंपरिक चिकित्सा उपचार के रोगियों के लिए दिया गया था जहां 1867 ई. में प्रतापगढ़ में पहला आयुर्वेदिक औषधालय खोला. इसके बाद कुछ Pathshallas (स्कूलों) राज्य भर में नि: शुल्क शिक्षा प्रदान करने के लिए 1875 ई. में खोले गए.
वह अपनी खुद की एक बेटा होने के बिना 1890 में निधन हो गया, इसलिए, उसकी विधवा को उनके कानूनी वारिस के रूप में स्वीकार किया जाना Arnod 'ठिकाना' के अपने पहले चचेरे भाई-रघुनाथ सिंह से एक को अपनाया. अंत में 1891 रघुनाथ सिंह में अंग्रेजों ने राजा के रूप में स्वीकार कर लिया गया.
राज्य पुलिस का पुनर्गठन, और कुछ भूमि सुधारों खासकर निपटान रघुनाथ सिंह के शासन के दौरान 'खालसा' गांवों में अस्तित्व में आया था. यह अंग्रेजी मुद्रा 'राज्य मुद्रा' के रूप में स्वीकार किया गया था कि उनके कार्यकाल में किया गया था.आधुनिकीकरण की प्रक्रिया इस प्रकार शुरू किया.
एक नगर समिति रघुनाथ सिंह के शासन के दौरान राजधानी शहर में 1893 ई. में बनाई गई थी. इस अवधि के दौरान मंदसौर-प्रतापगढ़ सड़क भी जोड़ने का निर्माण किया गया थामध्य प्रांत साथ राजपूताना . एक अलग सीमा शुल्क विभाग स्थापित किया गया था. नई डाकघरों प्रशासनिक विभागों को पुनर्गठित किया गया, खोल दिए गए थे. धीरे धीरे कानूनी तंत्र विकसित हो रही शुरू कर दिया और कोर्ट दीवानी न्यायालय, जिला न्यायालय और उच्च न्यायालय के तीन स्तरों प्रतापगढ़ से कामकाज शुरू कर दिया. लघु 'thikanas' और 'के बाद जागीरदारों 'भी कुछ कानूनी अधिकार दिया गया, न्यायपालिका 'Mahakma-खास' से अलग हो गया था. जिला न्यायालय की घोषणा करने का अधिकार था मृत्युदंड या प्रदेश के बाहर एक व्यक्ति "(शहर-बदर-सज़ा)" को खदेड़ने. हालांकि, इस तरह के एक 'कठोर सजा' आवश्यक अनुसमर्थन (तो) 'महाराजा-साब'.
Maharawat रघुनाथ सिंह सेवानिवृत्त होने के बाद, उनके बेटे (सर) राम सिंह राजा बन गया और अपने कार्यकाल के दौरान, नए सुधारों कृषि, शिक्षा, चिकित्सा और स्थानीय स्वशासन क्षेत्रों में शुरू किए गए थे. एक उच्च न्यायालय ने भी इस अवधि के दौरान स्थापित किया गया था. बीमा योजना, सेवानिवृत्ति लाभ आदि राज्य कर्मचारियों के लिए की तरह कल्याण के उपाय किए गए. प्रजा मंडल की गतिविधियों को भी बढ़ावा मिला. उन्होंने यह भी ब्रिटिश सरकार की ओर से "सर" की उपाधि प्राप्त की.
विकास जारी रखा और 1900 के द्वारा, Patapgarh ऊपर मध्य स्तर (8 स्टैंडर्ड) के लिए एक स्कूल था. इस वजह से मंदसौर, Neemach, Javra, छोटी Sadri, बादी Sadri, Nimbahera, और यहां तक ​​कि चित्तौड़गढ़ की तरह चारों ओर बड़े शहरों में किसी भी उच्च विद्यालयों या संगठित अस्पतालों नहीं था कि समय के दौरान एक छोटे से शहर के लिए एक उपलब्धि थी. प्रतापगढ़ के अस्पताल क्षेत्र में सबसे बड़ी एक माना जाता था. यह दो वार्डों में एक मादा (30 बेड की क्षमता) के लिए नर (45) बेड के लिए और दूसरा था. यह भी सर्जरी के लिए सभी सुविधाएं था. उपलब्ध सुविधाओं के कारण, यह जिला अस्पताल ', भी जिला चिकित्सा के कार्यालयों और क्षेत्र के स्वास्थ्य अधिकारी रखे जो के रूप में नामित किया गया था


Saturday 30 November 2013

भगोरिया भगोरिया पर विशेष भीलांचल संस्कृति को प्रस्तुत करने वाला पर्व है ‘‘भगोरिया’’ आदिवासी समुदाय अपनी मौज मस्ती और रंगीले स्वभा...

भगोरिया


भगोरिया पर विशेष

भीलांचल संस्कृति को प्रस्तुत करने वाला पर्व है ‘‘भगोरिया’’
आदिवासी समुदाय अपनी मौज मस्ती और रंगीले स्वभाव से ही समाज में अपनी पहचान बनाये हुए है । जो मौज मस्ती उनके स्वभाव में है वहीं उनके त्यौहारो में देखने को मिलती है । प्रणय को समारोह बनाना और समारोह में प्रणय का प्रसंग तलाषना भीलांचल की संस्कृति है । इसी संस्कृति को प्रस्तुत करने वाला पर्व है ‘‘भगोरिया’’ । प्रणय पर्व के रूप में अपनी पहचान रखने वाला यह पर्व हर उम्र के लिए अलग मायने रखता है । यही वजह है कि भगोरिया का इंतजार हर कोई अपने-अपने हिसाब से करता है । किसी के लिए भगोरिया मेला है, तो किसी के लिए जीवन साथी की तलाष, तो किसी के लिए मस्ती को महसूस करने का जरिया । वही कोई अपनी पुरानी रंजिष को अंजाम देने के लिए भगोरिया की बांट जोहता है ।
होली के एक सप्ताह पूर्व से शुरू होने वाले यह भगोरिया हाट भीलांचल के लिए नई उमंग, प्रणय-प्रसंग के साथ मेल मिलाप के समारोह की तरह होते हैं । नियमित रूप से लगने वाले हाट बाजारों को होली के आस पास भगोरिया हाट की शक्ल दी जाती है । फिर शुरू होता है इन हाट बाजारों में उमंग-तरंग एवं प्रेम इजहार का सिलसिला । बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को आन्नदित करने वाले इस भगोरिया हाट की सभी को प्रतिक्षा रहती है । बच्चें जहाॅ झूले, चकरी के लिए इसका इंतजार करते है वहीं युवा अपने जीवन साथी की तलाष के लिए । बुजुर्गों के लिए इस हाट मंे नषे का सुरूर और मांदल की थाप ही काफी है । भीलांचल में मनाए जाने वाले भगोरिया में वह सब होता है. जिसके लिये आदिवासी संस्कृति पहचानी जाती है । प्रणय निवेदन, नषे का सुरूर, मांदल की थाप पर नाचती टोलियाॅ, रंग-बिरंगे परिधान पहने युवक-युववियाॅ, झूले-चकरी में आनंद लेते ग्रामीण, तीर कमान एवं फालिया के साथ बांसूरी की सुर लहरिया गूंजाते छैल छबिले ।
भगोरिया हाट पुरानी प्रथाओं पर आधारित है तथा भीलों के देवता भगोर देव के नाम पर यह पर्व मनाया जाता है । कहा जाता हैं कि भगोर गोत्रिय भीलों द्वारा आरंभ किये जाने के कारण यह भगोरिया के रूप में चर्चा मे आया । एक आम मान्यता यह भी है कि भीलों द्वारा पूजे जाने वाले षिव-पार्वती का एक नाम भग एवं गोरी भी है । जिसके कारण ही इस पर्व को भगोरिया नाम मिला है । इन्ही के आधार पर यह आंकलन किया जाता है कि भगोरिया हाट का नामकरण पूर्व से प्रचलित इन्ही में से किसी मान्यताओं के आधार पर किया गया है। लेकिन इतिहास चाहे जो हो पर वर्तमान में भगोरिया पर्व आदिवासी परिवारों के उत्साह को मनाने का पर्व बन गया है । वैसे भी वर्तमान समाज में जिस तरह के प्रयोग हो रहे हैं आदिवासी परिवार उन प्रयोगों को पूर्व से ही करता रहा है । जिस तरह के स्वयंवर होने की कथाएॅ हिन्दू शास्त्रों में वर्णित है, वैसी ही पहल भगोरिया पर्व में देखने को मिलती है । भग एवं गोरी के प्रणय को उत्साह के साथ मनाने की मान्यता के चलते आदिवासी युवक-युवती भगोरिया हाट में अपने जीवन साथी की तलाष करते हैं । मुख्य रूप से नयी फसल आने पर उसकी खुषियों को नाच-गाकर मनाने की परम्परा भी इससे जुडी है । इन्ही खुषियों में जब दूसरी खुषियां मिलती है तो भगोरिया की रंगत आ जाती है । प्रणय निवेदन से हटकर इन हाट बाजारों में गीत संगीत के साथ मांदल, ढोल एवं बांसूरी की मधुर लहरियाॅ सुनने को मिलती है और ऐसे लोक गीत गूंजनें लगते हैं।

हमू काका बाबा न पोरिया,कोडल्यों खेला डुम ,
हमू भगोरिया हाट जावा रे,कोडल्यों खेला डुम ,

भगोरिया हाट के एक सप्ताह पूर्व जो हाट लगते हैं उन्हें तैहवारिया का नाम दिया जाता है। इन हाट बाजारों में आदिवासी परिवार आकर भगोरिया हाट के लिए सामग्री खरीदने का काम करते हैं । मूल रूप से सजने-सवरने एवं आंनद को महसूस करने के लिए मनाया जाने वाले भगोरिया हाट के लिए ज्यादातर वस्त्र एवं श्रंगार सामग्री खरीदी जाती है । उत्साह का यह आलम होता है कि नषे में पुरूषों के साथ महिलाए भी कन्धे से कन्धा मिलाकर मांदल की थाप पर थिरकती दिखती है । हाट के दौरान बडे बुर्जुग जहा आपस में गुलाल लगाकर गले मिलते है, वहीं युवा अपनी गुलाल का उपयोग जीवन साथी को चुनने में करते हैं । हाट के दिनों में नृतक दल के रूप में युवक एवं युवतियों की टोलियाॅ गेहर बनाकर आमने सामने होती है । अपनी प्रस्तुती को बेहतर एवं आकर्षक बनाने के प्रयास ही जीवन साथी का चयन आधार होते है । हाट में यदि किसी युवक को युवती पसंद आ जाये तो वह गाल पर गुलाल लगाकर प्रणय निवेदन करता है । इसके जवाब में अगर युवती भी गुलाल लगाती है तो माना जाता है कि वह भी जीवन साथी बनने की इच्छुक है । वहीं यदि युवती गुलाल पौंछ देती है तो यह निवेदन अस्वीकार माना जाता है और युवक अन्य युवती की तलाष मे निकल जाता है । वर्तमान में इस परंपरा मंें भी बदलाव देखने को मिल रहा है । अब गुलाल की जगह पान खाने एवं खिलाने का निवेदन और उसकी स्वीकृति भविष्य को तय करती है । एक अन्य बात जो इस परंपरा को रोचक बनाती है वह है युवक युवती की स्वीकृति के बाद दोनों का भाग जाना। इसके बाद दोनों के परिवारजन बैठकर आपस में समझौता करते हैं। इसके बाद वर पक्ष की तरफ से वघू पक्ष को दी जाने वाली राषि का निर्धारण होता है। इस राषि के चुकाये जाने के बाद ही भागे गये युवक-युवती वापिस घर को लौटते हैं। उसके बाद सामाजिक आयोजन कर इस प्रस्ताव को सामाजिक मान्यता प्रदान की जाती है। वर एवं वधू पक्ष के बीच समझौता कराने में मुख्य भूमिका भानगड़िये की होती है। ये वो व्यक्ति होता है जो दोनों पक्षों के बीच सुलह कराता है। यह सुलह इतनी आसान भी नहीं होती कि जितनी दिखती है। कई बार इन्हीं कारणों से परिवारों के बीच मतभेद एवं आपसी रंजिष भी बढ़ जाती है और उसका अंजाम हत्या एवं आगजनी तक पहुंच जाता है। भगोरिया हाट के दौरान एक ही गांव की युवतियां एवं युवक एक जैसे कपड़ों में हाट में पहुंचते हैं। कपड़ों की ये समानता फलियों के आधार पर होती है। झाबुआ जिले में जिस तरह के भौगोलिक स्थिति है वहां पर पहाड़ों की चोटियों पर परिवार बसते हैं। अलग-अलग समूह में बसे ये परिवार ही फलिये का आधार होते हैं।
भगोरिया हाट की परम्परा का सम्मान करते हुए अब जिला प्रषासन ने आपसी रंजिष को दूर करने के एवं युवक-युवती के भागने पर होने वाले टकराव को रोकने के लिए भगोरिया हाट में अपने विषेष काउन्टर स्थापित किये हैं । जहा पर जनप्रतिनिधि एवं जिला प्रषासन के अधिकारी ये कोषिष करते हैं कि पसंद आने पर युवक-युवती यहा अपना पंजीयन करायें तथा अपनी इस सहमति को प्रमाणिकता प्रदान करें। जिला प्रषासन ने यह भी पहल की है कि यहाॅं पर पंजीयन कराने वाले युवक-युवतियों को पाॅच हजार रू. की सहायता दी जाती है। इसके पीछे जिला प्रषासन की मंषा ये है कि भानगडिये एवं दापा के माध्यम से खर्च होने वाली राषि से आदिवासी परिवारों को कर्जे से बचाया जा सके क्योंकि जिस तरह दापा के माध्यम से लड़के का पिता लड़की के पिता को जो राषि चुकाता है उसका परिणाम लड़की को भुगतना पड़ता है। कर्जे में डूबा परिवार घर आते ही बहू को भी मजदूरी पर भेज देता है। झाबुआ जैसे अंचल में जहां आजीविका की संभावनायें कम हैं तथा किसानों की भूमि सिर्फ एक फसल देती है ऐसे में पलायन यहाॅं की आजीविका का एक मात्र आधार है। ज्यादातर आदिवासी परिवार पलायन के माध्यम से अपनी रोजी रोटी चलाते हैं लेकिन भगोरिया पर्व की शुरूआत के साथ ही पलायन पर गये आदिवासी परिवार वापिस लौटने लगते हैं। भगोरिया पर्व झाबुआ के अलावा धार, बड़वानी एवं खरगोन के आदिवासी अंचलों में मनाया जाता है।
कुल मिलाकर भीलांचल में भरने वाले भगोरिया हाट में आदिवासी संस्कृति की सम्पूर्ण झलक देखने को मिल जाती है। भगोरिया का संास्कृतिक पक्ष उल्लास, उमंग एवं मस्ती का है, यहाॅ पर हर कोई अपने-अपने हिसाब से इसे जीता है और इसके आने का इन्तजार करता है।

गलचूल आस्था और उत्सव का मेला ‘‘गलचूल’’ आदिवासी समुदाय का जीवन जितना चुनौतियों भरा है, उतनी ही चुनौती भरी उनकी आस्था और उसका निर्वाह ...

गलचूल

आस्था और उत्सव का मेला ‘‘गलचूल’’

आदिवासी समुदाय का जीवन जितना चुनौतियों भरा है, उतनी ही चुनौती भरी उनकी आस्था और उसका निर्वाह है । इस तथ्य की प्रमाणिकता को आदिवासी अंचलों में लगने वाले ‘‘गल चूल मेले’’ में परखा जा सकता है। होली के दूसरे दिन आयोजित किए जाने वाले इस आयोजन में आदिवासी समुदाय की आस्था, निर्वाह की चुनौती एवं उनकी संस्कृति से रूबरू हुआ जा सकता है। निराकार देवता के प्रति आस्था का यह उत्सव मात्र एक आयोजन न होकर रोमान्चित करने वाला अनुभव भी है।

धुलेंडी वाला दिन आदिवासी अंचलों में ‘‘गल बाबा’’ की मनौती को पूरा करने का दिन होता है। इस दिन आदिवासी परिवार अपनी मन्नत के पूरा होने का धन्यवाद अनोखे ढंग से देते हैं। महिलाए जहां धधकते अंगारों पर नंगे पैर चलती हैं, वहीं पुरूष कई फीट ऊपर कमर में रस्सी बांधकर हवा में झूलते हैं। मन्नत उतारने की इस परम्परा को ‘‘गल चूल’’ कहा जाता है तथा देवता को ‘‘गल बाबा’’ कहा गया है।
परम्परा के अनुसार मन्नत पूरी होने के बाद मन्नत धारी युवक धुलेंडी के 7 दिन पूर्व से ही शरीर पर हल्दी का लेप लगाते हैं और धोती पहनते हैं। कमीज के स्थान पर यह युवक शरीर पर लाल रंग का कांच किया कपड़ा बांधते हैं और सिर पर पगड़ी होती है। हाथ में नारियल के साथ कांच रखते हैं, आंखों में काजल लगाने के साथ गाल पर क्राॅस का चिन्ह बनाते हैं। सात दिन तक इस अवस्था में रहने के बाद धुलेंडी वाले दिन गल देवता के स्थान पर पहुंच कर अपनी मन्नत को पूरी करते हैं।
गल ग्रामों में बाहरी स्थान पर लकड़ी की 20-30 फीट ऊंची मचान बनाई जाती है। जिस पर सीड़ी से चढ़ा जाता है। गल मचान पर एक 15-20 फीट आड़ी मोटी लकड़ी बनी होती है, जिस पर गल घूमने वाले मन्नतधारी व्यक्ति को औघा लटकाकर बांधा जाता है और नीचे से फिर रस्सी द्वारा एक व्यक्ति उसे मचान के चारों ओर तेजी से घुमाता है। इस प्रकार मन्नत के अनुसार तीन से पांच तक चक्कर लगाए जाते हैं। उसके पश्चात गल देवरा घूमने वाले व्यक्ति के परिजन गल देवता के नीचे बकरे की बलि देते हैं। इस प्रकार की मन्नत पुरूष आदिवासी लेते हैं। जिसके पीछे कई कारण हैं जैसे - बच्चों का नहीं होना, घर में किसी का बीमार होना आदि शामिल हैं। इसके साथ ही इसी दिन महिलाएं भी मन्नत लेती हैं और पूर्ण होने पर नंगे पैर दहकते अंगारों पर चलती हैं जिसे ‘‘चूल’’ पर चलना कहा जाता है। यह मन्नत वाले स्थान पर मेले का आयोजन किया जाता है जिसे ‘‘गल चूल’’ मेला कहा जाता है।

मेले में मांदल की थाप पर लोग नाचते हैं और उत्सव का आनंद लेते हैं। यहां लगने वाले मेले पूरी तरह से आदिवासी संस्कृति की झांकी प्रस्तुत करते हैं। सजे धजे युवक युवतियां यहां पहुंच कर मांदल के साथ नाचते गाते हैं। आदिवासी महिलाएं चांदी के आभूषण पहनकर बन संवर कर आती हैं, वहीं आदिवासी पुरूष गले में बड़े बड़े मांदल डालकर खूब नाचते हैं। मेले में खाने पीने की दुकानें भी सजती हैं। यहां महिला आदिवासी श्रृंगार भी खूब बिकता है। इस मेले का विशेष आकर्षण गुड़ की जलेबी होती है।
इस बर्ष झाबुआ के समीपस्थ ग्राम बिलीडोज में ‘‘गल मेले’’ पर विशेष उत्साह देखेने को मिला। यहां कोई लम्बी बीमारी से मुक्ति से उत्साहित था तो किसी को संतान की इच्छा पूरी होने पर ‘‘गल बाबा’’ के प्रति धन्यवाद की जल्दी थी। यहां शाम चार बजे ही आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों से लोगों की भीड़ जुड़ने लगी थी। मन्नतधारी युवक सफेद पगड़ी व धोती तथा कमर पर लाल कपड़ा बांधे आये थे। एक के बाद एक युवक लगभग 20 फीट ऊंचे मचान पर चढ़कर गल घूम रहे थे। मन्नत के अनुसार किसी ने पांच, किसी ने सात और किसी ने नौ बार गल घूमा। देर तक यही क्रम चलता रहा । मन्नतधारी युवक गल घूमने के साथ गल देवता की जयकार लगाते हुए फूल फेंक रहे थे। नीचे खड़े लोग मन्नतधारियों का उत्साह बढ़ाने में लगे थे। जैसे ही कोई मन्नतधारी मन्नत पूरी कर नीचे आता, उसके परिजन उसे बधाई देते। मन्नत पूरी होने पर नीचे बकरे की बलि दी जा रही थी। ग्राम बिलीडोज के अमय पिता जैराम ने बताया कि वह लम्बे समय से बीमार था। बीमारी ठीक होने पर वह मन्नत उतारने आया था। इसी प्रकार धन्ना पिता धूलिया और अमरू पिदिया ने संतान होने पर गल देवता की मन्नत उतारी। मन्नत उतारने के साथ नई मानता लेने वालों की भी कमी नहीं थी।
कुल मिलाकर वषों से चली आ रही आदिवासी मान्यताओं एवं परम्पराओं को आज भी आदिवासी समुदाय ने जीवित एवं जाग्रत बनाकर रखा है। पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते चलन के बावजूद धार्मिक मान्यताओं के पूरा करने के लिए समुदाय में आज भी उतना ही विश्वास कायम है। यही मान्यता, निर्वहन पद्धति एवं संस्कृति के विभिन्न रंग आदिवासी समुदाय को दूसरे समुदाय से भिन्न बनाते हैं। उत्साह एवं उत्सव दोनों ही इस संस्कृति के मुख्य आधार हैं जो हर रीति रिवाज एवं परम्पराओं में परिलक्षित होते हैं। कहा जाता है कि आदिवासी समुदाय एक उत्सवधर्मी समाज है और यही उत्साह भीलांचल के हर कार्यक्रम में देखने को मिलता है। आदिवासी समुदाय को देखकर यह महसूस किया जा सकता है कि संस्कृति के होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है ,उसका निर्वहन। संस्कृति जब ही कायम रह सकती है, जब हम उसे उसी स्वरूप में आने वाली पीढ़ी को सौंपा जाए। यही सब करने में लगा है आदिवासी समुदाय।

Friday 29 November 2013

झाबुआ जिले में कुपोषण के कारण 12 हजार 735 बच्चे पिडित ।  जिले का महिला बाल विकास विभाग कुपोषण की रोकथाम के लिये जुटा । झाबुआ से दिलीप...

झाबुआ जिले में कुपोषण के कारण 12 हजार 735 बच्चे पिडित । 
जिले का महिला बाल विकास विभाग कुपोषण की रोकथाम के लिये जुटा ।

झाबुआ से दिलीप सिंह वर्मा

     झाबुआ जिले में 0-5 साल तक के कुल 1 लाख 72 हजार 198 बच्चे है जिनमें से 1 लाख 13 हजार 660 बच्चे सामान्य स्तर के है वहीं मध्यम स्तर के 46 हजार दस बच्चे है जबकि अतिकम वजन के 12,7,35 बच्चे  है ।
 जिले में बच्चों को कुपोषण से बचाने के लिये जिला महिला बाल विकास को जिम्मा सौंपा गया है विभाग के द्वारा इन बच्चों में से अभी तक 11006 बच्चों को चिन्हित कर इनमें से 601 बच्चों को बिमारी से बचान्रे में सफलता प्राप्त की है । जिले की महिला एवं बाल विकास अधिकारी सुश्री निलू भट के अनुसार जिले में चार केंद्र संचालित है जिनमें से एक पोषण पुनर्वास केंद्र जिला चिकित्सालय झाबुआ पर दूसरा केंद्र प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पेटलावद तिसराकेंद्र प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र थांदला तथा चौथा केंद्र प्राथमिक स्वास्थ्य क्रेंद्र जीवन ज्यो्रति हास्पीटल मेघनगर में संचालित है ।
 जिले में कुपोषित बच्चों की तादात इतनी अधिक र्है की उनका ईलाज करने में विभाग को कठिनाईयों का सामना करना पड रहा है अंधविष्वास,अषिक्षा एवं चिकित्सालयों पर पूरी तरह विष्वास नहीं होने से आदिवासी अपने बच्चों को चिकित्सकों के पास नहीं ले जाते हुए उनका झांड फंूक से ईलाज कराने में ज्यादा विष्वास करते है ।
 कुपोषण बिमारी 0-5 साल के बच्चों में पाई जाती है अति गंभीर कुपोषीत बच्चों को 14 दिनों के लिये चिकित्सालय में प्राथमिक उपचार क्रे लिये भर्ती कराना आवष्यक होता है । बिमारी बच्चों का परीक्षण बच्चों की बाजू की माप के द्वारा किया जाता है जिसके तहत 11.5 से.मी.या उससे कम बाजू की माप आने पर बच्चे को कुपोषीत मानकर उसे चिकित्सालय में भर्ती कीया जाकर वहां कम से कम 14 दिनों तक उसकी उचित द्रेखभाल कर ईलाज करना होता र्है तभी वह इस बिमारी से छुटकारा पा सकता है । चिकित्सालय से छुटी के बाद भी 15 दिनों तक चारप्रकार से बच्चे काफालोअप कियाजाता है । जिसक्रे तहत बच्चों के माता पिता को सरकार की ओर से 65 रू.के मान से 14 दिनों की मजदूरी व 200 रूप्ये परिवहन राषि क्रे रूपमें दिये जात्रे है । वहीं प्रति फालोअप के लिये भी 200 रूप्ये परिवहन एवं एक दिन की मजदूरी 65 रू.दी जाती है ं । चिकित्सालय में भर्ती क्रे दौरान बच्चों क्रे भोजन ह्रेतु प्रतिदिन 50 रूपये की राषि 14 दिनों तक दि जाती है तथा अभिभावकों को पोषण प्रषिक्षक द्वारा स्वास्थ्य पोषण षिक्षा दी जाती है ।
 ष्सरकार ने कुपोषण रो्रकने क्रे लिये कारगर कदम व यो्रजना बनाई र्है लेकिन निचले स्तर पर इनक्रे क्रियान्वयन नहीं होन्रे से यह बिमारी जिले म्रें विकराल रूप धरती जा रही र्है और लगातार बच्चों की मोते हो रही र्है पिछले साल एक साथ 42 बच्चों की मोते हुई तो केंद्र सरकार का ध्यान भी आदिवासी जिले की और गया तथा क्रेंद्रीय महिला बाल विकास मंत्री कुष्णा तिरथ ने जिले का र्दौरा कर कुपोषण की जानकारी र्ली और कहां था कि प्रदेष भर में बच्चो को उचित आहार के रूप म्रें अंड्रे दिये जायेगें । कितु प्रदेष में भाजपा सरकार को बच्चों को अंडा द्रेना रास नहींआर्या और आज तक पोषक आहार क्रे रूप में बच्चों को अंडे नहीं दिये जा सक्रे र्है ।
 पिछले दिनों प्रदेष क्रे स्वास्थ्य एवं जिले क्रे प्रभारी मंत्री महेन्द्र हार्डिया ने जिलायो्रजना की र्बैठक में कुपोषण पर गहरी चिंता प्रकट कर इसमें जनप्रतिनिधियो्रं का सहयोग मांगा है ।एक और सरकार जनप्रतिनिधियों से मदद की गुहार कर रही र्है तो दूसरी और  विभाग
जनप्रतिनिधियों की पूछ परख करना जानता ही नहीं है । इसीलिये जिले में बाल कल्याणबोर्ड को्र बने चार माह से अधिक का समय गुजर गया है लेकिन विभाग न्रे आज तक बाल कल्याण बोर्ड क्रे सदस्यों की एक भी बैठक तक आहूत नहीं की है दूसर्री और विभाग बाल विवाह पर रो्रक नहीं लगा पाया र्र्है और आज तक जिले म्रें एक भी प्रकरण बाल विवाह पर दर्ज नहीं किया जा सका है ।
 और अब प्रदेष सरकार ने इतने नाकारा अमले को्र जिले में ब्रेटी बचाओं योजना क्रे तहत 10 करोड रूपयों का नया प्रोजेक्ट थमा दिया र्है ।
    द्रेखना र्है अब जिले मे नई कलेक्टर जयश्री कियावत के आने क्रे बाद विभाग कितनी ईमानदारी से कार्य कर धरातल पर कितना खरा उतरता है ।

गंगोत्री,यमुनोत्री,केदार,बद्रीनाथ चार धाम यात्रा वृतांत उत्तराखंड यात्रा में पंच केदार की यात्रा का महत्व भारत की आखरी दुकान प...

गंगोत्री,यमुनोत्री,केदार,बद्रीनाथ चार धाम यात्रा वृतांत
उत्तराखंड यात्रा में पंच केदार की यात्रा का महत्व
भारत की आखरी दुकान पर चाय पिने का अपना ही मजा

झाबुआ से दिलीप सिंह वर्मा की रिपोर्ट

    भारत के उत्तराखंड राज्य में चार धाम यात्रा का अपना अलग ही स्थान है। गंगा का उदगम गंगोत्री,यमुना का उदगम यमनोत्री ओर हिमालय में भूत भावन शिव का धाम केदार नाथ तो बद्रीनाथ में बद्रीनारायण। इनसभी देवों के साथ साथ यहां का प्राकृतिक,मनोहारी,पहाडी,पर्वतीय और जंगली दृष्य बरसबस ही मन लुभावन होता है। हिन्दू धर्म ग्रंथों के मानिंद चार धाम यात्रा जीवन के सार महत्व को समझने एवं उसके बदलने के लिये भाग्यशाली यात्रीयों के लिये ईश्वर कृपा से ही संभव है इस यात्रा को हर कोई भारतवंशी अपने जीवन में पूरा कर पाये ये संभव नहीं है।
चारधाम यात्रा के साथ जुडे है हरिद्वार, ऋिषिकेश, देहरादून, मसूरी,
त्रियोगीनारायण,उतरकाषी,चौपता,ओली,हेमकुंडसाहिब,जोशीमठ,उखीमठ,रूद्रप्रयाग,देवप्रयाग आदि।
 तो आईये आपको हम ले चलते है चार धाम के इस यात्रा वृतांत में सबसे पहले हरी के द्वार हरिद्वार में गंगा नदी से घीरे हरिद्वार में हरकी पोठी पर संध्या में गंगा आरती का दृश्य मनोहारी होताहै गंगा
घाटों पर स्थित मंदिरों पर घंटों की गुंजायमान होती घंटनाद तो गंगामैया की जय-जय की ध्वनी मंत्र मुग्ध कर देती है गंगास्नान कर यात्री अपने जीवन को धन्य कर लेता है वहीं हरिद्वार में शांतिकुंज मां गायत्री का शक्ति पीठ,भारत माता कामंदिर, मंशा देवी,चंडी देवी के मंदिर,पंतजली योग केंद्र सहित विभिन्न धार्मिक मंदिरों के साथ साथ कई बडे हिन्दू साधु संतों-मंहतों के आश्रम भी यहां स्थापित है । हरिद्वार से ही जुडा हुआ है ऋषिकेश जहां विशाल गंगा जी के उपर बना हुआ है लक्ष्मण झूला और राम झूला इसके अलावा कई मंदिर और आश्रम है । यहां गंगा जी में बोटिंग का अपना ही महत्व है । इनयात्राओं को करते हुए पहुंचते है उत्तराखंड की राजधानी देहरादून प्राकृतिक रूप से पूरी तरह सौदर्यप्रधान देहरादून राजधानी होने के बाद भी मंहगा नहीं है यहां कई होटले व धर्मशालाऐं है जिनमें यात्री ठहरते है देहरादून में सहस्त्राधारा,देखने लायक स्थल है यहां कई अच्छे पढाई के लिये विघालय,एवं शासकीय ट्ेनीग अकादमीयां भी है जहां पर देश के आय.ए.एस. व आय.पी.एस.अधिकारीयों को प्रशिक्षण दिया जाता है ।
देहरादूर से मसूरी जाते वक्त रास्ते में आतेहै प्रकाश शेखर महादेव का मंदिर यह मंदिर अन्यन्त मनोहारी है यहां पर स्फटीक की विशाल प्रतिमाएं स्थापितहै इस मंदिर में किसी प्रकार का चढावा नहीं लिया जाता है और या़ित्रयों को प्रसाद,चाय आदि निशुल्क उपलब्ध कराई जाती है यहां पर सभी प्रकार के रत्न मंूगा,माणीक,पना,हिरा,रूद्राक्ष आदि ग्यारंटी के साथ असली मिलते है जिनकी किमते सैकडों से लगाकर लाखों रूपयों में होती है यहां पर बंदरों की भरमार है अगर आपने थोडी भी चुक की तो आपके हाथ से खाने पिनेका सामान कब गायब हो जोगा आपको पता ही नही चले गा और बंदर झपटा मार देगें । लंबी घूमावदार चढाई के बाद आता है अन्त्यत रमणीक स्थान मसूरी जहां पर आसमान और धरती का मानो मिलन हो रहा हो बादल आपके आसपास घूम रहे हो कोहरे से सारा वातावरण धुंधंकार हो गर्मी में भी ठंड का अहसास हो लेकिन जेब काटने में यह शहर काफी आगे है सबकुछ मंहगा है अमीर वर्गीय लोगों के लिये ये जन्नत है । एक हजार से लगाकर एक लाखतक के यहां होटलों में कमरे है । घूमने फिरने व ठहरने का यहां का मजा ही निराला है ।
पहाडी रास्तों को पार करते हुए स्वान चटी,हनुमान चटी,जानकी चटी,नारद चटी होते हुए पहूंचते है यमनोत्री, यमुनोत्री जाने के लिये रास्ता काफी खराब है यहां आसानी से नहीं पहूंचा जा सकता है 6 कि.मी.की यात्रा पैदल ही करना होती है जोकि दुर्गम है । यहां जाने के लिये घोडे भी मिलते है । जिनपर बैठकर यमुनोत्री तक पहूंचा जा सकता है यहां ठंड अधिक होती है । यहां घोडो का किराया 600 से लगाकर 1000 तक होता है इसके अतिरिक्त पालकी इत्यादी भी मिलती है । यमुनोत्री पहूंचकर मंदिर स्थान तक जाने के लिये अत्यन्त सकरे लकडी के पुल को पार कर यमुना जी के उस पार जाना होता है । यमुना मंदिर के पास ही गर्मजल के कुंड में स्नान करने से सारी रास्ते की थकान मिट जाती है फिर यमुना जी के द
र्शन कर यहां बहने वाली विशाल यमुना पर्वतों को चिर कर बहती हुए अत्यन्त डरावनी प्रतित होती है । यहां फोटो लायक रमणीय दृष्य है । कई मर्तबा यहां यमुना जी के प्रवाह कारण लकडी का बना पुल बह जाता है फलस्वरूप कई बार या़त्री फंस जाते है ।
यमुना जी के दर्शन के बाद आगे बडा जाता है गंगोत्रीधाम के लिये ।
ग्ंगोत्री तक सीधे गाडी चली जाती है यहां पहुंचने में अधिक श्रम नहीं करना होता है । गंगोत्री से 16 कि.मी.जंगल में पैदल जाकर गंगा गौमुख के दर्शन किये जा सकते है जहां से विशाल गौ मुख से गंगा जी प्रकट हो रही है अपने शितल,श्वेत निर्मल जल के तेज प्रवाह से यहां से हमन ेगंगाजल भरा, गंगा नदी में हाथ डालने मात्र से ही ऐसा लगा है जैसे बर्फ में हाथ ठहरगया हो । यहां से 23 कि.मी. पर निलांग चीन की सीमा लगती है । नेपाल के कर्नल थापाद्वारा बसाया गया गंगोत्री तिर्थ स्थल पर आज भी नेपाली शैली के चिन्ह मिलते है । रास्ते में भैरोघाटी,लंका,हर्षिल आदि गांव आते है वनों एवं पहाडों से अच्छादीत सुरम्य स्थान है । रास्ते में गर्म जल कुंड स्थान गगनानी आता है यहां गर्मजल कुंड में स्थान करने से सारी थकावट दूर हो जाती है । 
पहाडी व जंगली रास्तों को पार कर अगला पडाव यात्रा का पहूंचता है उत्तरकाषी भगवान विश्वनाथ के दर्शन के बाद यात्रा आगे बढती है केदारनाथ की और रास्ते में टीहरी बांध का मनोहर हारी दृष्य द्रेखते ही बनता है विशाल टिहरी बांध को देखना अपने आपको गौरवान्वीत महसूस करने जैसा होता है । विश्व की बडी टिहरी परियोजना यहां स्थापित है । दुर्गम रास्तों को पार करते हुए पहूंचते है रूद्रप्रयाग यहां पर अलकनंदा व मंदाकनी नदी का संगम स्थल है । आगे आता है गुप्तकाशी जहां भगवान अर्द्धनारिश्वर के रूप में विराजीत है यहां मंदिर प्रांगण में आगे एक कुंड है जहां पर गंगा जी व यमुना जी गुप्त रूप से गौ मुख से निकलकर अनवरत जल धारा के रूप में बह रही है यहां पर गुप्तदान किये जाने का महत्व है ।
आगे रास्ते में फाटा आता है जहां से केदारनाथ के लिये हेलिकाप्टर सुविधा मिलती है । सोनप्रयाग होते हुए बाबा केदारनाथ के दर्शन हेतु पहूंचते है हिमालय की गौद में रामपुरा से दर्शन क्रे लिये चलते है गौरीकुंड से 14 कि.मी. की दुर्गम यात्रा घोडे,पालकी,पैदल चलकर पूरी करना होती है उपरी चडाई अत्यत्न्त कठिन 7 कि.मी.पर रामबाडा आता है जहां पर विश्राम किया जाता है फिर आगे की चडाई और सात किलोमिटर बाद हिमालय पर्वतों के बिच दर्शन होने लगते है पांडवकालिन बाबा केदार नाथ क्रे मंदीर के केदारनाथ का भव्य मंदिर जहां भगवान शिव भैसे के आकार में विराजीत है यहां पर भगवान को चांदी के बिल्व पत्र और घी चढाने का महत्व है इससे सारी हत्याओं के पाप धूल जाते है । यहां ठहरने आदि की भी व्यवस्थाऐं हैं। चारों और बर्फिलि पहाडीयां मन को मोहलेती है इन 
शिवालिक पहाडियों को देख ऐसा लगा है इन वादियों में ही बस जायें ।
त्रिजोगीनाराण 7500फिट उपर तथा गोरी कुंड से 15 कि.मी.दूर है । यहां पर तीन कुंड बने हुए है । इस स्थान पर भगवान शिव व माता पार्वती का विवाह हुआ था । यहां आज भी हवनकुंड प्रज्वलित है  तथा वह शिला भी मौजूद है जिसपर भगवान शिव माता पार्वती ने अपने विवाह के लिये फेरे लिये थे तथा जहां उनका कन्यादान किया गया था । यहां से उखीमठ पहूंचते है उखीमठ में केदारनाथ जी के पट बंद  होन ेपर भगवान की पूजा अर्चना की जाती है यहां प्राचिन मंदिर है । यहां से 27 कि.मी. की दूरी पर है उत्तराखंड की सबसे उची चोटी चौपता जोकि यहां दर्शनिय स्थान है । बाबा तुंगनाथ की  चौटी जोकि 12750 फीट पर है  यहां तक चढने का मार्ग पैदल और घ्।ोडे द्वारा है । हमने हिम्मत करके इस चौटी पर पैदल चढाई की जो कि जीवन का बडा एडवैचर था । इस स्थन पर भगवान की भुजा और हदय स्थल लिंग है । यहीं पर एक और चंद्रशिला है जहां पर चन्द्रमा ने गणेश उपासना की थी तो दूसरी ओर रावणशिला है जहां पर रावण ने अपने दश शिश काटकर शिव को प्रसन्न किया था । यह स्थान उतराखंड का सबसे उचां स्थान है यहां से पूरे क्षेत्र पर नजर डाली जा सकती है । ठंड भी यहां अधिक है यहां काटेज में रूकना काफी सुकून दायक रहता है । यहां से यात्रा बद्रीविशाल की और बडती र्है पहाडी एवं प्राकृतिक सौंदर्यको देखते हुए चमोली जिले में प्रवेश हो्रता है जहां से आगे जोशीमठ है यहां पर बद्रीनाथ जी के पठ बंद होने पर भगवान की पूजा अर्चना की जाती है नृहसी मंदिर प्राचिन है । यहीं से थोडि दूरी पर ओली है जहां पर पर्यटक बर्फ का आनन्द ट्राम ट्राली में बैठकर उठा सकते है । आगे फूलों की घाटी और हेमकुंड साहिब है जहां सिक्खों का धार्मिक स्थल है बडी संख्या में सिक्ख लोग यहां प्रतिसाल दर्शन को आते है । हेमकुंड साहिब में गुरूद्वारा में शब्दकिर्तन करने और गर्मजल में स्थान करने से सारे पापों का नाश हो जाता है रास्ते में फूलों की घाटी में तरह तरह के फूल मन को मोह लेते है । और हम पहूंच जाते है बद्रीविशाल अलकनंदा नदी के किनारे बसे विशाल बद्रीविशाल मंदिर में भगवान बद्रीविशाल अपनी बद्री पंचायत के रूप में दर्शन देने को बिराजीत है । यहां पर भी गर्म जल के कुंड बने है जहां पर महिला पुरूष अलग अलग स्नान कर भगवान के दर्शन को जाते है यहां पर बर्फिलि चोटियों के शिखर सूर्य की रोशनी में ऐसे दिखलाई पडते है मानो चांदी के पहाड खडे हुए हो ।
यहां से 3 कि.मी.दूर है भारत का आखरी गांव माणा जोकि अत्यन्त रमणीय व दर्शनिय है यहां वेद व्यास गणेश गुफा,भील शिला,सरस्वती जन्म स्थान आदि है यहां पर ही है भारत की आखरी चाय की दुकान जोकि बर्फिलि ठंडी पहाडियों में गर्मी का एहसास कराती है ।
पंच केदार की इस यात्रा में यात्रियों को पर्याप्त मात्रा में गर्म कपडे,दवाईयां,नगदी साथ में रखना चाहिये यहां पर नेटवर्क की काफी समस्या भी बनी रहती है वहीं यहां रात्रि में यात्रा करना वर्जीत होता है इसलिये शाम 6 बजे तक हमें विश्राम के लिये रूकना होता है संपूर्ण या़त्रा 9 दिनों में पूरी की जा सकती है । यह यात्रा हमें जन्म मृत्यु का एहसास कराते हुए ईश्वर के प्रति आस्था प्रगाढ करने में सहायक होती है। उतराखंड चार धाम यात्रा पूरी आस्था,श्रद्वा विश्वास के साथ की जाती है कई यात्री तो यात्रा बिच में ही अधूरी छोड देते है । यात्राऐं हमें सिखलाती है और साहसीक बनाती है कई नवीन अनुभव भी सिखलाती है अत यात्राऐं निरन्तर करते रहना चाहिये । जय बद्री जय केदार ।        
                          
चारधाम यात्रा से लौटकर दिलीप वर्मा

 
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